संवाददाता || दीपक देवदास | बालोद

 

बालोद। 23 जून को अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया जाता है। एक समय इसे अपशगुन के तौर पर माना जाता था। कुरीतियां ऐसी थी कि पुराने जमाने के लोग विधवा विवाह की अनुमति नहीं देते थे । अगर किसी की शादी के अल्प समय के बाद पति की मृत्यु होने पर विधवा हो जाती थी तो ऐसी महिलाओं को समाज और परिवार के लिए अपशगुन मान लिया जाता था। ऐसी महिलाओं की जिंदगी मानो थम सी जाती थी। अपना जीवन घुट घुट कर गुजारती थी लेकिन आज शिक्षा के प्रसार और आधुनिकता के दौर में कुरीतियों की बेड़ियों से महिलाएं आजाद हुई है और अब विधवा विवाह लगभग हर समाज में होने लगे हैं। इस दिवस पर हमने विभिन्न समाज के लोगों से बात कर यह जानने का प्रयास किया कि उनके समाज में विधवा विवाह को किस तरह से प्रोत्साहन दिया जाता है, पहले समाज में क्या कुप्रथा थी?

 

महिलाओं में बढ़ रही साक्षरता

वहीं छत्तीसगढ़ में साक्षरता दर की अगर बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार कुल साक्षरता दर 70.28 प्रतिशत है। जिसमें पुरुष साक्षरता दर 80.27% और महिला साक्षरता दर 60.20% है। जिसमें सिर्फ बालोद जिले की बात करें तो यहां की साक्षरता दर 80.28% है. साक्षरता दर के मामले में बालोद जिला शीर्ष साक्षरता वाले जिलों में शामिल है। इसमें महिलाओं की साक्षरता दर बालोद में 71.28 और पुरुषों की साक्षरता दर 89.52% है। बढ़ती शिक्षा सुविधा और जागरूकता सहित सरकार की प्रोत्साहन योजनाएं भी विधवा विवाह को बढ़ावा दे रही है। वही समाज भी अब पुरानी कुरीतियों और छोटी सोच से आगे निकलकर महिलाओं के उत्थान में सहभागिता निभा रही है।

पहले माना जाता था विधवा या पुनर्विवाह है अशुभ

बालोद जिला निवासी छग महरा समाज के प्रांतीय सह सचिव दीपक आरदे ने कहा कि एक समय होता था जब लोग पुराने ख्यालात के होते थे। उस समय विधवा को अशुभ माना जाता था। पति की मौत हो जाती थी तो महिलाओं को उनके मायके में ही छोड़ दिया जाता था और वह जीवन भर दुःख झेलते थी। लेकिन अब युग परिवर्तन हुआ है। हमारा समाज भी विधवा विवाह को लेकर कोई पाबंदी नहीं लगाता है। जिनकी इच्छा होती है अपनी नए जीवन का शुरुआत करते हैं। विधवा विवाह पहले समाज में देवर विवाह के रूप में प्रचलित था। अगर किसी के पति की मौत होती थी तो महिला उनके भाई यानी अपने देवर से शादी कर लेती थी। मगर बाद में जागरूकता आई कि भाभी मां समान है इसलिए देवर विवाह को खत्म कर विधवा विवाह या पुनरविवाह की प्रथा शुरू की गई।

समय-समय पर होते हैं सामूहिक विधवा विवाह

छग प्रदेश युवा कुर्मी क्षत्रिय समाज के प्रदेश अध्यक्ष योगेश्वर कुमार देशमुख ने कहा कि कुर्मी समाज भी इस मामले में काफी आगे है। समाज की कुरीतियों और कुप्रथाओं को दूर करने के लिए लगातार सुधार किए जा रहे हैं। हमारे समाज में कई बार सामूहिक आदर्श विवाह होते हैं। इसमें भी विधवा विवाह कराए जाते हैं। इसके अलावा व्यक्तिगत आयोजन भी होते हैं । इससे समाज में एक बदलाव तो आ ही रहा है तो महिलाएं भी खुद को अपने जीवन में आजाद महसूस करती है। यह उनके उत्थान के लिए काफी जरूरी है।छत्तीसगढ़ का कूर्मि समाज एक प्रगतिशील और आधुनिक सोच रखने वाला समाज है। कूर्मि समाज की महिलाएं सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी समाज की महिलाएं अपनी भलाई के लिए स्वयं सोचती हैं और पुरुष उनका साथ देते हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के कूर्मि समाज में विधवा विवाह अब एक सामान्य बात है। आम तौर से विधुर ही विधवा महिला से विवाह करते हैं, लेकिन कई उदाहरण ऐसे भी हैं जहां अविवाहित पुरुष ने विधवा महिला से शादी की है। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहां ससुर ने स्वयं अपनी विधवा बहू की शादी करवाई है। समाज में विधवा महिलाओं पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। विधवा महिलाएं सिंदूर और मंगलसूत्र छोड़कर सामान्य वेशभूषा धारण कर सकती है। घर में सम्पन्न होने वाली सभी शुभ कार्य में भाग ले सकती है ।

 

किसी का मांग उजड़े तो कोई मांग भर करते हैं नए जीवन की शुरुआत

ठेठवार समाज के जिला अध्यक्ष डॉक्टर उत्तम यादव (जनपद सदस्य) ने कहा कि समाज की महिलाएं कई कुरीतियों की बेड़ियों से आजाद हो गई हैं। पहले लोग विधवा को अशुभ मानते थे। अब शिक्षा का प्रसार हुआ है, बेटियां पढ़ लिख रही है। किसी की बदनसीबी से अगर शादी के कम समय के बाद मांग उजड़ जाता है तो चूड़ी पहना कर दूसरे उन्हें मांग पर सिंदूर भरकर उनकी दुनिया सजाते हैं। समाज का इसमें अब कोई रोक-टोक नहीं है, ना कोई पाबंदी लगाते हैं। इसमें महिलाओं को पूरी छूट होती है।

कैसे हुई इस विधवा दिवस की शुरुआत

अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस हर साल 23 जून को मनाया जाता है। इसे मनाने का मुख्य उद्देश्य दुनिया भर की विधवा महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों, गरीबी, सामाजिक बहिष्कार और हिंसा जैसे मुद्दों के प्रति जागरूकता बढ़ाना और उनके अधिकारों तथा कल्याण के लिए काम करना है।इस दिवस की शुरुआत यूनाइटेड किंगडम के लॉर्ड राजिंदर पॉल लूंबा ने अपनी माँ श्रीमती पुष्पा वती लूंबा की याद में की थी, जो 23 जून 1954 को विधवा हुई थीं और उन्होंने देखा था कि उनकी माँ को विधवा होने के बाद कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बाद में, 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने औपचारिक रूप से 23 जून को अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस के रूप में घोषित किया।

 

इस दिन को मनाने के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण हैं जैसे:

जागरूकता बढ़ाना: दुनिया में लाखों विधवाएं हैं, जिनमें से कई को अपने पति को खोने के बाद भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस दिन का उद्देश्य लोगों का ध्यान इन समस्याओं की ओर आकर्षित करना है।

अधिकारों की सुरक्षा: विधवाओं को अक्सर संपत्ति के अधिकार, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। विधवा दिवस उन्हें उनके कानूनी और सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए आवाज उठाने का अवसर प्रदान करता है।

सामाजिक स्वीकार्यता: कई समाजों में विधवाओं को आज भी सम्मानजनक नजर से नहीं देखा जाता और उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यह दिन विधवाओं के प्रति समाज की मानसिकता बदलने और उन्हें बराबरी का हक दिलाने के लिए काम करता है।

समय के साथ बदलता गया समाज का नजरिया

1.वैदिक काल: कुछ स्रोतों के अनुसार, वैदिक काल में विधवा विवाह का प्रचलन था। उस समय विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति थी। वशिष्ठ, कौटिल्य और नारद जैसे विद्वानों ने भी विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया था।
2.मध्यकाल: ईसा के 600 वर्ष बाद स्मृतिकारों ने विधवा को निंदनीय माना और 11वीं सदी के बाद बाल-विधवाओं के पुनर्विवाह पर भी रोक लगा दी गई। हालांकि, यह प्रतिबंध मुख्य रूप से हिंदू समाज के उच्च वर्गों में लागू था। निम्न वर्गों में विधवा पुनर्विवाह अभी भी प्रचलित था।

 

3.19वीं शताब्दी(आधुनिक काल): 19वीं शताब्दी में विधवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी। उन्हें समाज में अशुभ माना जाता था और अक्सर अपमान व भेदभाव का सामना करना पड़ता था। उन्हें रंगीन कपड़े पहनने, सजने-संवरने या सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। पुनर्विवाह पर पूर्ण प्रतिबंध था, इसे धर्म और समाज के विरुद्ध समझा जाता था। बाल विवाह के कारण कम उम्र में ही कई लड़कियाँ विधवा हो जाती थीं और उनका जीवन बहुत कष्टों में बीतता था।

इन्होंने किया सुधार आंदोलन:
ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे समाज सुधारकों ने विधवा पुनर्विवाह के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों में विधवा पुनर्विवाह की अनुमति ढूंढी और इसका प्रचार किया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856 पारित किया, जिसने विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दी। यह कानून 16 जुलाई 1856 को पारित किया गया और 26 जुलाई 1856 को लागू हुआ। इस कानून ने विधवाओं को उनके पहले विवाह से मिली विरासत और अधिकार प्राप्त करने का भी हक दिया।

वर्तमान में ये है स्थिति

कानून बनने के बावजूद, आज भी कुछ जातियों और क्षेत्रों में विधवा पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक विरोध और रूढ़िवादिता देखने को मिलती है, खासकर ग्रामीण और रूढ़िवादी समुदायों में। हालांकि, शहरी और शिक्षित समाज में इसे अब अधिक स्वीकार्य माना जाता है। सरकारें और विभिन्न संगठन विधवाओं के कल्याण और उनके पुनर्विवाह को बढ़ावा देने के लिए योजनाएं और सहायता प्रदान करते हैं। विधवा विवाह के प्रति समाज का नजरिया समय के साथ बदलता रहा है। जहां प्राचीन वैदिक काल में इसे स्वीकृति मिली थी, वहीं मध्यकाल और आधुनिक काल के शुरुआती दौर में यह एक बड़ी सामाजिक बुराई बन गया था। समाज सुधारकों के प्रयासों और कानूनी हस्तक्षेप के बाद, अब इसे अधिक स्वीकार्यता मिली है, हालांकि अभी भी पूरी तरह से सामाजिक स्वीकृति मिलना बाकी है।